कविता के तत्वों का वर्णन कीजिये।Describe the elements of poetry.
कविता के तत्वों का वर्णन कीजिये।Describe the elements of poetry.
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लय - कविता से लय का रिश्ता सबसे पुराना है। इसीलिए प्रसिद्ध प्रगतिवादी विचारक क्रिस्टॉफर कॉडवेल ने कविता की जो सात विशेषताएँ बतलायी हैं, उनमें लय को सर्वप्रथम स्थान दिया है। लय कविता में तुकों की व्यवस्था ही निर्धारित नहीं करती, अतुकांत कविता को भी एक विशेष संश्लेषणात्मक रूप देती है। इसी प्रकार छन्दों की संरचना का आधार विविध लयें ही हैं और मुक्तछन्द की संयोजकता का तो सम्पूर्ण दायित्व लय पर ही होता है, यहाँ तक कि लय छन्द और मुक्तछन्द से आगे बढ़कर गद्य की भी आन्तरिक व्यवस्था बनती है।
आज हम पत्र-पत्रिकाओं एवं नये संग्रहों में प्रायः ऐसी कविताएँ देखते हैं, जो गद्य ही प्रतीत होती हैं। इनमें से सफल रचनाओं में तो लय की उपस्थिति अवश्य मिलेगी पर निश्चित रूप से वह पारम्परिक लय से भिन्न होगी। इस स्थिति में सबसे आवश्यक प्रश्न है, लय मूलतः क्या है? और लयात्मक भाषा की रचना किस प्रकार होती है? यह जानना भी प्रासंगिक होगा कि कविता में लय क्या विशेषता लाती है?
यह एक मान्य तथ्य है कि भाषा का जन्म आवेग-क्षणों में अथवा श्रम-क्षणों में ही हुआ है। चाहे सुखदुःखात्मक आवेग हों अथव श्वास-प्रश्वास की गति को तेज करने वाला श्रम हो, ध्वनियाँ एक विशेष आरोहावरोह के क्रम से आने पर एक प्रवाह को जन्म देती हैं। सामन्यतः 'मात्रा' का अर्थ है किसी भी पदार्थ की संहति परन्तु भाषा के सन्दर्भ में "मात्रा" से तात्पर्य ध्वनियों के उच्चारण-काल से है। जब हम शब्दों को दीर्घ ह्रस्व ध्वनियों के संयोजन से इस रूप में क्रम देते हैं, कि वह एक आवृत्तिपरक समन्विति को जन्म देता है या कहें एक निरन्तरता और प्रवाह को जन्म देता है तो वह आन्तरिक प्रवाह भाषा में लय को जन्म देता है। इससे यह भी स्पष्ट है, कि लय कहीं बाहर नहीं है, वह सन्दर्भित भाषांश में "लय" हुई मिलती है। अतएव ध्वनियों की समान अन्तराल में आवृत्ति लय का आधार बनती है। इस लय की उपस्थिति को मनुष्य ने सर्वप्रथम प्राकृतिक क्रियाओं में पहचाना। झरनों से ज़ल का गिरना, हवा में वृक्षों का झूमना, झीलों-तालों में लघु तरंगों की आवृत्ति, पक्षियों के कलरव और नाना घटनाओं की लयात्मकता को कविता के साथ जोड़ना या उसमें उसे उतारना एक सुखद अनुभव था। प्रकृति के सारे क्रिया- कलाप यहाँ तक कि ग्रह-तारों की गतियाँ लयबद्ध हैं।
कविता एक भाषिक रचना है, इसलिए इसके दो आयाम हैं- शब्द और अर्थ। दोनों एक दूसरे से अलग तो नहीं है परन्तु रचना-प्रक्रिया में दोनों की अलग सत्ता भी विचारणीय है। कविता का अर्थ उसकी अन्तर्वस्तु का निर्माता है और शब्द उसके रूप का। शब्द की एक ध्वन्यात्मक संरचना होती है जो क्रम और मात्रा के आधार पर एक प्रवाहात्मक व्यवस्था को जन्म देती है। यह व्यवस्था कविता में 'गुनगुनाने' का गुण भी पैदा करती है। यह गुनगुनाहट छन्दों की व्यवस्था लेकर क्रमशः परिष्कृत होती हुई संगीत की शास्त्रीयता तक जा सकती है परन्तु मूल रूप में यह 'लयात्मक' होती है। उपनिषद का प्रसिद्ध कथन है :
सर्वे सुखिना भवन्तु :
सर्वे सन्तुः निरामया
सर्वे भद्राणि पश्यन्तुः
मा कश्चिद् दुखभाग भवेत्,
इस संरचना की पहली पंक्ति का 'सर्वे' शब्द अपने बाद में आने वाले शब्द के आधार पर एक बलाघात का निर्धारण करता है और पंक्ति के तीनों शब्दों के आधार पर उच्चारण का विशेष रूप निर्मित होता है। मूलतः विशिष्ट प्रवाह ही लय है और आगे आनेवाली पंक्तियों में इसी लय को बनाये रखने के लिए कवि एक विशेष शब्द-क्रम को चुनता है। संसार भर की भाषाओं में रची जाने वाली कविता में 'लय' का प्रमुख स्थान रहा है। संस्कृत काव्यशास्त्र में कविता को 'श्रव्य-काव्य' कहा गया है। परन्तु कविता सुनना ऐसा ही नहीं है, जिस प्रकार आकाशवाणी से समाचार बुलेटिन सुनना या. रेलवे स्टेशन पर की जाने वाली घोषणाओं को सुनना है। 'कविता' का सुनना उसके लयात्मक वाचन को सुनना है और लयात्मक वाचन लयात्मक पाठ में निहित रहता है। इसलिए कविता को दूसरे तक पहुँचाने के लिए एक लयात्मक पाठ की रचना करना कवि का उद्देश्य होता है। पारम्परिक छन्द-लय की बहुत स्पष्ट और प्रत्यक्ष उपस्थिति है। दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया आदि का लय-विधान लोक में बहुत प्रचलित है और इन छन्दों में प्रत्येक की अपनी मौलिक एवं रूढ़ लयें हैं जबकि आधुनिक कविता में छन्दों का बहुत विविध प्रयोग है, इसलिए उसमें लय् भी अपने टकसाली साँचे की तरह विद्यमान नहीं है। लय की पहचान हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से कर सकते हैं। इन पंक्तियों को देखिए :
संकल्प के हैं 'गूंजते ये छन्द अम्बर में
हम आज बोएँगे मलय की गन्ध ऊसर में।'
गति - कविता में गति का अस्तित्व लय को सम्भव बनाने में ही है। वस्तुतः 'गति' को हम इसके विलोमात्मक युग्म 'यति' के साथ रखकर देखें तो स्थिति और स्पष्ट हो सकती है। यति का अर्थ ठहराव या रुकना है। छन्द में शब्दक्रम एक विशेष पाठ की अपेक्षा रखता है। इस विशेष पाठ में हम पाते हैं कि कविता की पंक्तियों में कुछ स्थल ऐसे आते हैं, जहाँ एक निश्चित विराम रहता है जबकि शेषांश में विराम न होकर प्रवाह रहता है। वास्तविकता यह है कि गति और यति संयुक्त रूप में लय की सृष्टि करते हैं बल्कि जहाँ ये तीनों तत्त्व उपस्थित होते हैं, वहाँ एक मूर्त छन्द रूप ग्रहण करता है। गति के लिए छन्दों की व्यवस्था का निर्वाहं जरूरी है। उदाहरण के लिए चौपाई और दोहा छन्द में सम-मात्रा-समूहों के साथ सम मात्रा समूह ही आते हैं और विषम- मात्रा-समूहों के साथ विषम मात्रा समूह ही आते हैं। इसके बिना वह प्रवाह ही नहीं बन सकता जो दोहा या चौपायी छन्द की रचना करे। इस तथ्य को समझने के लिए निम्न पंक्तियों को पढ़ें :
(क ) धरम धीरज मित्र अरु नारी
परखिए आपत काल चारी
अब इन पंक्तियों को इस रूप में पढ़िए :
(ख) धीरज धरम मित्र अरू नारी
आपत काल परखिए चारी।
(क) रूप का प्रवाहात्मक पाठ नहीं हो सकता। उसमें गति का अभाव है जबकि (ख) रूप को हम प्रवाहपूर्ण ढंग से पढ़ते हैं। कारण यह है 'धरम' तीन मात्राओं का समुच्चय है। उसके साथ प्रवाह में आने के लिए तीन मात्राओं का ही अगला शब्द आना चाहिए। यदि (क) को हम इसी रूप में पढ़ना चाहेंगे तो पहली पंक्ति को फिर भी चौपायी के रूप में इस प्रकार पढ़ सकते हैं : 'धरम धीर जमित्र अरु नारी' परन्तु दूसरी पंक्ति में तो इसकी भी सम्भावना नहीं है। क्योंकि 'परखिए' और 'आपत' शब्द में एक साथ पढ़ने पर तीन मात्राओं के बाद दोनों गुरु वर्ण आये हैं और इनके कारण सम-सम या विषम विषम का संयोजन सम्भव ही नहीं रहता। इसलिए इस पंक्ति का प्रवाहपूर्ण उच्चारण नहीं हो सकता। हम कह सकते हैं कि इस रूप में पंक्ति में गति नहीं है।
अब इस स्थिति को निम्न दोहे के माध्यम से भी समझिए :
होरी के घर आज भी
नहीं फँसेरी धान
खेत-खेत में लिख रही
भूख करुण गोदान
यदि हम पहली पंक्ति को 'आज भी होरी के घर' कर देते हैं या तीसरी पंक्ति का यह रूप रखते हैं : 'लिख रही खेत-खेत में' तो इन पंक्तियों की 'गति' बिगड़ जाती है और दोहे की लय समाप्त हो जाती है। कारण वही है। हम जब पढ़ते हुए 'आज भी' से 'होरी' तक जाते हैं तो सम-सम और विषम-विषम की अपेक्षा अपूर्ण रह जाती है और छन्द में दोहे की गति नहीं आ पाती। यही समस्या 'लिख रही' के बाद 'खेत' का उच्चारण करने में पैदा होती है। सफल कवि छन्द की आन्तरिक व्यवस्था को पहचान लेता है। इससे पंक्ति में - चरण में- गति आती है। इधर के अनेक कवियों ने छन्द का अभ्यास ही छोड़ दिया। इसका परिणाम यह हुआ है कि जब- जब इन नये कवियों ने छन्द में लिखने की कोशिश की तब-तब रचना में ऊपर से तो छन्द दिखाई देता है पर यति-गति के दोषपूर्ण होने के कारण उसका प्रवाह बाधित रहता है और कविता पढ़ते समय वही अनुभव होत्ता है जो खाना खाते समय दाँत के नीचे कंकड़ आ जाने से होता है। ऐसे कई कवि अपनी अक्षमता को छन्द का विरोध करके छिपाते हैं।
तुक - कविता को लोकप्रिय बनाने और उसके प्रभाव को बढ़ाने में तुक का भी विशेष योग होता है। तुक को अन्त्यानुप्रास भी कहते हैं। अलंकारों के सन्दर्भ में बतलाया जा चुका है कि वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहा जाता है। जब यह वर्णसाम्य कविता की पंक्ति अर्थात चरण में घटित होता है तो वह तुक कहलाता है। उदाहरण के लिए प्रसाद का यह गीत देखा जा सकता है जिसके मोटे टाइप के शब्द एक विशेष तुक-व्यवस्था को स्पष्ट करते हैं :
जब सावन-घन सघन बरसते
वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे
इन आँखों की छाया भर थे
प्राण पपीहा के स्वर वाली
बरस रही थी जब हरियाली
रस जलकन मालती मुकुल से
जो मदमाते गन्ध विधुर थे
चित्र खींचती थी जब चपला
नील मेघ-पट पर वह विरला
मेरे जीवन स्मृति के जिसमें
खिल उठते वे रूप मधुर थे
प्रत्येक तुकान्त कविता की काव्यरूप एवं छन्द के अनुसार विशेष व्यवस्था होती है। गीत की पहली पंक्ति टेक होती है। कई बार टेक एक से अधिक पंक्तियों में भी होती है। उपर्युक्त गीत की टेक में तीन पंक्तियाँ हैं। कवि कई बार तीनों में भी अन्त्यानुप्रास का प्रयोग करते हैं। यहाँ पहली और तीसरी पंक्ति में तुक (अन्त्यानुप्रास) का प्रयोग किया गया। फिर सातवीं और ग्यारहवीं पंक्तियों पर क्रमशः पहला और दूसरा अन्तरा समाप्त होते हैं। इनकी तुक भी पहली और तीसरी पंक्ति से मिलती है। दोनों अन्तरों की पहली दो पंक्तियों में भी तुक मिलती है। वस्तुतः तुक का मिलान छन्द-विधान एवं काव्य-रूप पर तो निर्भर करता ही है, कवि भी उसकी व्यवस्था में विविधता (variation) को लाता है। आपने देखा होगा कि दोहा छन्द दो पंक्तियों में लिखा जाता है पर वास्तव में यह 13-11 के क्रम से चार पंक्तियों. का छन्द है और इसमें दूसरी और चौथी पंक्ति में तुक मिलती है। सोरठा छन्द में इसके मात्राओं का क्रम 11- 13, 11-13 होता है। इसीलिए इसमें तुक पहली और तीसरी पंक्ति में मिलती है। यों तो दुनिया भर की भाषाओं के काव्य में तुकान्त कविता मिलती है परन्तु संस्कृत काव्य प्रायः अतुकान्त है। हिन्दी के छन्द अपभ्रंश से विकसित हुए हैं और दोहा इसका सबसे पुराना छन्द है। अपभ्रंश काव्य तुकान्त है। इसलिए पिछले 50 वर्षों की हिन्दी कविता को छोड़कर समूची हिन्दी कविता अधिकांशतः तुकान्त ही है। गत चार-पाँच दशकों में मुक्त छन्द के प्रचलन के कारण अतुकान्त कविता भी पर्याप्त लिखी जा रही है पर आज भी नवगीत गज़ल, दोहा, मुक्तक और पद पर्याप्त संख्या में लिखे जा रहे हैं। पद में कई बार सभी पंक्तियों में अन्त्यानुप्रास रहता है और कभी दो-दो पंक्तियों में होता है।
छन्द- अब तब हम तुक, लय एवं गति पर विस्तार से विचार कर चुके हैं। इन अवधारणाओं के सन्दर्भ में छन्द का का प्रसंग बार-बार आया था। इस प्रकार हम परोक्षतः छन्द-प्रसंग पर भी काफी विचार कर चुके हैं। अब अब हम छन्द की अवधारणा को और कविता में उसके योगदान को और स्पष्ट करेंगे।
काव्य-शास्त्र में छन्द को कविता का अनिवार्य तत्त्व घोषित नहीं किया गया है पर प्राचीन काव्य में छन्दरहित कविता की कोई लम्बी परम्परा देखने को नहीं मिलती। जब वाल्मीकि के मुख से ये दो पंक्तियाँ
माँ निषाद प्रतिष्ठिाम् त्वम्गमः शाश्वत समा
यत्क्रौंच मिथुनादेकमवधी काम मोहितम्।।
तो ऋषि को सुखद आश्चर्य यही हुआ था कि उसके शब्द अनुष्टुप छन्द में लयमान • होकर निकले थे। उसके बाद शताब्दियों तक 'छन्द के बन्ध' तो टूटते रहे पर ये हर बार नये छन्दों का निर्माण करने के लिए ही टूटे और कविता से छन्द का नाता स्थायी बना रहा।
लय, यति एवं गति छन्द के स्वरूप के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि लय-क्रम वस्तुतः विशिष्ट वर्ण-क्रम है। इसलिए छन्द भी वर्णों के क्रम एवं उनके स्वरूप पर निर्भर है। हिन्दी साहित्य कोश में दी गयी छन्द की परिभाषा से से भी यही स्पष्ट होता है। उसमें लिखा गया है: "अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति-गति आदि से सम्बन्धितं विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य रचना छन्द कहलाती है।" छन्द के संस्कृत में मूलतः दो अर्थ हैं। एक, जो आह्लादित अर्थात प्रसन्न करता है, वह छन्द है। दूसरे, जो आच्छादित करता है, वह 'छन्द है। कविता में इन दोनों ही अर्थों की प्रासंगिकता है। अपने लयात्मक प्रवाह के कारण छन्दोबद्ध रचना का पाठ आह्लादपरक होता है। दूसरे छन्द, कविता में कहीं बाहर से आरोपित नहीं होता और न ही वह वह किसी एक हिस्से से सम्बन्धित होता है। अपितु वह पूरी रचना को आच्छादित किये रहता है, बँके रहता है या कहें उसमें समाया भी रहता है। इसलिए वह छन्द है। इसका अँग्रेजी पर्यायः 'मीटर' केवल कविता में माप की व्यवस्था की सूचना देता है। यों भी Metre की व्युत्पत्ति लैटिन धातु Mete से हुई है। छन्द की अन्य विशेषताओं के साथ-साथ उसकी मापकता भी उल्लेखनीय है। कविता में एक शब्द- समुच्चय जहाँ समाप्त होता है, उस पंक्ति को चरण कहते हैं। लय एवं अक्षरों का क्रम और उसकी संख्या एक पंक्ति विशेष के माप को निर्धारित करते हैं। उसी तोल का निर्वाह जब आगे की पंक्तियों में भी होता है तो उनके आधार पर 'पद' का निर्माण होता है। पद में प्रायः हर चरण होते हैं। पर इससे कम ज्यादा भी हो सकते हैं। प्रश्न यह है कि चरणों के समतौल या एक चरण के कुछ सम्भार का निर्धारण कैसे होता है। वास्तव में जब ध्वनियों का उच्चारण करते हैं तो दूरी, भार, आयतन आदि की भौतिक इकाइयों की तरह ध्वनि के उच्चारण-काल की भी ईकाई निर्धारित की गयी है। यह ईकाई व्याकरण, भाषा-विज्ञान और छन्द-शास्त्र (जिसे पिंगल-शास्त्र भी कह दिया जाता है) में तो एक-सी है, पर संगीत में वह थोड़ी भिन्न है और वहाँ की मात्रा थोड़ी बड़ी है। छन्द शास्त्र में "अ" के उच्चारण काल को एक मात्रा माना गया है। इसी आधार पर सभी लघु स्वरों की एक-एक मात्रा एवं दीर्घ स्वरों की दो-दो मात्राएँ परिगणित होती हैं। व्यंजन की मात्रा स्वर के साथ गिनी जाती है।
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